भाषा एवं साहित्य >> आलोचना - समय और साहित्य आलोचना - समय और साहित्यरमेश दवे
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नन्ददुलारे बाजपेयी आलोचना पुरस्कार, श्रेष्ठ कला आचार्य, मालव-रत्न, अभिनव शब्द-शिल्पी आदि पुरस्कारों से सम्मानित श्री रमेश दवे की एक प्रज्ञामयी कृति
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘आलोचना-समय और साहित्य’ किसी कृति का कृतिकार को केन्द्र में रखकर लिखी
गयी समालोचना नहीं है। इसमें किसी प्रकार के सिद्धान्त निरूपण का दावा भी
नहीं है। दरअसल यह अपने समय और साहित्य दोनों की सतत् नवीन होती
चुनौतीपूर्ण धाराओं में अन्दरूनी तौर पर बहने की एक छटपटाहट है।
हिन्दी आलोचना के पास प्रत्यक्षतः दो परम्परायें हैं - एक अतीत की शास्त्रीय परम्परा जिसे वह गर्व के साथ वहन करती आयी है; दूसरी पश्चिम की परम्परा है, जो आधुनिक से उत्तर-आधुनिक तक के तमाम साहित्य कला-आन्दोलनों की पहचान से जुड़ी है। यहाँ न पहली परम्परा का मोह है न दूसरे के प्रति प्रीति और न ही किसी तीसरी परम्परा की खोज की आकांक्षा। यहाँ वास्तव में आलोचना को एक विचार की तरह आजमाया गया है।
इस रचना में हिन्दी आलोचना को साहित्य के उन्मेष में परखने का उद्यम है। आशा है इससे पाठक की आलोचनात्मक जिज्ञासा जाग्रत होगी और वह कुछ नये आयामों की आहटों को भी महसूस कर सकेगा।
हिन्दी आलोचना के पास प्रत्यक्षतः दो परम्परायें हैं - एक अतीत की शास्त्रीय परम्परा जिसे वह गर्व के साथ वहन करती आयी है; दूसरी पश्चिम की परम्परा है, जो आधुनिक से उत्तर-आधुनिक तक के तमाम साहित्य कला-आन्दोलनों की पहचान से जुड़ी है। यहाँ न पहली परम्परा का मोह है न दूसरे के प्रति प्रीति और न ही किसी तीसरी परम्परा की खोज की आकांक्षा। यहाँ वास्तव में आलोचना को एक विचार की तरह आजमाया गया है।
इस रचना में हिन्दी आलोचना को साहित्य के उन्मेष में परखने का उद्यम है। आशा है इससे पाठक की आलोचनात्मक जिज्ञासा जाग्रत होगी और वह कुछ नये आयामों की आहटों को भी महसूस कर सकेगा।
भूमिका
रमेश दवे की आलोचना हमारे भीतर पैठे बौद्धिक आलसस्य को झँझोड़कर रचना को
उसके सभी आयामों में देखने-परखने का उकसाने वाली आलोचना है। वे उन थोड़े
से लोगों में हैं जिन्हेंने कृति की राह से सीधा संवाद रचने का सुदीर्घ
अनुभव अर्जित करने के उपरान्त ही आधुनिक आलोचना के व्यापक सन्दर्भों में
प्रवेश किया है, उनकी विशेषज्ञता हासिल की है। अभी तक जिन पाठकों को एक
गम्भीर आस्वादक समीक्षक के तौर पर सृजन की कई विधाओं में उनकी अंतरंग पैठ
और विवेचन-सामर्थ्य की परिचय मिला है, वे इस पुस्तक में उनके एक नये रूप,
नयी क्षमता के कायल होंगे : स्वयं आलोचना विधा के साथ उनकी गहरी संसक्ति
और अनभिज्ञता के। पढ़ना रमेश दवे के लिए एक उत्कट बौद्धिक व्यसन है।
जीवनानुभव के समानान्तर; और लिखना उस पढ़े हुए को फिर से पढ़ने और आत्मसात
करने-करवाने की अनिवार्य प्रक्रिया। जीवनानुभुतियों के समकक्ष और
समानान्तर ही अपने अध्ययनानुभवों के बीच भी सार्थक सम्बन्ध बिठाने की
सूझ-बूझ का प्रमाण इस पुस्तक में संकलित लेख देते हैं।
यह निरे संयोग से कुछ अधिक है कि साहित्यालोचकों के रूप में रमेश दवे की पहचान ‘समकालीन अफ्रीकी साहित्य’ की उनकी विवेचना बनी थी। बल्कि यह कहना कदाचित और अधिक अर्थवान होगा कि एक आलोचक के रूप में अपनी वृत्ति और क्षमता की आत्मविश्वास भरी प्रतीति ही उन्हें समकालीन अफ्रीकी साहित्य के अवगाहन से हुई थी। दवे की विश्वविद्यालयीन दीक्षा अंग्रेजी भाषा और साहित्य में हुई थी, अतः अँग्रेजी और अँग्रेजी के माध्यम से यूरोपीय साहित्य की जानकारी तो उन्हें उपलब्ध ही थी, किन्तु जिस साहित्य ने उनके भाव-बोध को सर्वाधिक आकर्षित और सक्रिय किया, वह उनके अपने जीवन-बोध और परिस्थिति-बोध के निकट पड़ने वाला साहित्य था—तीसरी दुनिया का साहित्य—जिससे उनके तार सीधे जुड़ते थे इस प्रकार उनकी आलोचक बुद्धि ने साहित्यिक सृजन के दोनों आधारभूमियों-संस्कृति और परिस्थिति दोनों—को युगपद् रूप में साधने का सिलसिला कायम किया और इसी के भीतर से वह अनुशासन विकसित किया जो अनन्तर उनके साहित्यिक विवेक के एकाधिक रंगों के प्रस्फुटन में सहायक हुआ।
हमा चाहें तो याद रख सकते हैं कि धर्म और दर्शन की अधोगति के इस युग में साहित्य और साहित्यलोचन पर एक अतिरिक्त जिम्मेदारी अनिवार्यतः आ पड़ी है; साहित्य में पुनर्रचित जीवन के स्पन्दों को मानवता के अन्तःप्रमाण को युगीन विचार-प्रवाह के भरे-पूरे परिप्रेक्ष्य में देखने-परखने की। आलोचक हैरल्ड ब्लूम का तो स्पष्ट ही अभिमत है कि ‘चूँकि आज के हमारे सांस्कृतिक दृश्य में दार्शनिक मनीषा लगभग गायब हो गयी है, अतः साहित्यालोचक अपने स्वधर्म से ही अन्तर्विवश है उस रिक्त स्थान की पूर्ति करने और समाज को शिक्षित करने का वह सांस्कृतिक कर्म अपने हाथ में लेने को—जिसे कभी दार्शनिक लोग निभाया करते थे।’
इस पुस्तक के आरंभ में दवे ने ‘आलोचना-समय’ की बात उठाते हुए कुछ रोचक सामान्य स्थापनाएँ की हैं, कुछ प्रश्न भी खड़े किये हैं जिनका खुलासा फिर आगे के लेखों में होता है। ‘आलोचना और सृजनशील समाज’ इस सिलसिले में एक विचारोत्तेजक और मननीय लेख है जिसमें अफ्रीकी कविता की लोक-ग्रह्यता का बखान करते हुए यह संकेत उभरता है कि ‘आलोचना की उस जमीन को पकड़ना होगा जिस पर हर परिवर्तन हो सकता है, लेकिन जो खुद नहीं बदलती।’ साथ ही, इसी लेख में आगे वे यह जता देना भी नहीं भूलते कि, ‘किस तरह अति –सामाजिकता का प्रमाद सृजन को विश्रृंखलित कर सकता है।’ दोनों ही बातें समकालीन साहित्याकारों और समीक्षकों के लिए अत्यन्त प्रासंगिक और मननीय हैं। दवे आलोचना के लिए आलोचना के कायल नहीं; न आलोचना-कर्म को किन्हीं शास्त्रीय या विचारधाराई आग्रहों के आधीन कर देने के। लेखकों की सन्दर्भ-बहुलता हमें इसी बुनियादी विवेक के चलते बिदकाती नहीं, बल्कि उकसाती है—उन तमाम प्रचलित प्रत्ययों को ठीक-ठीक समझने तथा उनके अतिरिक्त आतंक की झांड़-फूँक करने के लिए। ताकि हम अवसरानुकूल न केवल उन्हें साधिकार बरत सकें, बल्कि एतद्देशीय सन्दर्भों में उनकी उपयोज्यता या अनुपयोज्यता के बारे में भी खुद ही स्वाधीन विवेक से निर्णय ले सकें। इसी के चलते उनकी यह बात खासतौर पर बोलती है कि ‘आलोचना का सौन्दर्य सृजन की शक्ति की पहचान में है इसलिए वह समयबद्ध और समययुक्त एक साथ हैं क्योंकि उसे तो दोनों तरह से साहित्य में प्रवेश करना होता है।’
कहना अनावश्यक है कि दवे की आलोचक-बुद्धि जहाँ जागतिक परिस्थिति के प्रति सचेत है, वहीं वह उसके एतद्देशीय सन्दर्भों को भी आँख से ओझल नहीं होने देती। यह आकस्मिक नहीं कि जहाँ इस संकलन के पहले ही निबन्ध ने अपनी उड़ान मिलान कुंदेरा के हवाले से भरी है, वहीं अगले ही निबन्ध की अन्तर्वस्तु ‘आलोचक राष्ट्र’ की परिकल्पना को सर्वप्रथम देशवासियों के सम्मुख रखने वाले सर्जक-विचारक अज्ञेय से प्ररेणा ग्रहण करती है। आलोचना-कर्म की प्रेरणाओं और प्रक्रियाओं में जरूरी सन्तुलन बनाये रखने की यह कोशिश इस पुस्तक में आद्योपान्त दिखाई देती है।
यह निरे संयोग से कुछ अधिक है कि साहित्यालोचकों के रूप में रमेश दवे की पहचान ‘समकालीन अफ्रीकी साहित्य’ की उनकी विवेचना बनी थी। बल्कि यह कहना कदाचित और अधिक अर्थवान होगा कि एक आलोचक के रूप में अपनी वृत्ति और क्षमता की आत्मविश्वास भरी प्रतीति ही उन्हें समकालीन अफ्रीकी साहित्य के अवगाहन से हुई थी। दवे की विश्वविद्यालयीन दीक्षा अंग्रेजी भाषा और साहित्य में हुई थी, अतः अँग्रेजी और अँग्रेजी के माध्यम से यूरोपीय साहित्य की जानकारी तो उन्हें उपलब्ध ही थी, किन्तु जिस साहित्य ने उनके भाव-बोध को सर्वाधिक आकर्षित और सक्रिय किया, वह उनके अपने जीवन-बोध और परिस्थिति-बोध के निकट पड़ने वाला साहित्य था—तीसरी दुनिया का साहित्य—जिससे उनके तार सीधे जुड़ते थे इस प्रकार उनकी आलोचक बुद्धि ने साहित्यिक सृजन के दोनों आधारभूमियों-संस्कृति और परिस्थिति दोनों—को युगपद् रूप में साधने का सिलसिला कायम किया और इसी के भीतर से वह अनुशासन विकसित किया जो अनन्तर उनके साहित्यिक विवेक के एकाधिक रंगों के प्रस्फुटन में सहायक हुआ।
हमा चाहें तो याद रख सकते हैं कि धर्म और दर्शन की अधोगति के इस युग में साहित्य और साहित्यलोचन पर एक अतिरिक्त जिम्मेदारी अनिवार्यतः आ पड़ी है; साहित्य में पुनर्रचित जीवन के स्पन्दों को मानवता के अन्तःप्रमाण को युगीन विचार-प्रवाह के भरे-पूरे परिप्रेक्ष्य में देखने-परखने की। आलोचक हैरल्ड ब्लूम का तो स्पष्ट ही अभिमत है कि ‘चूँकि आज के हमारे सांस्कृतिक दृश्य में दार्शनिक मनीषा लगभग गायब हो गयी है, अतः साहित्यालोचक अपने स्वधर्म से ही अन्तर्विवश है उस रिक्त स्थान की पूर्ति करने और समाज को शिक्षित करने का वह सांस्कृतिक कर्म अपने हाथ में लेने को—जिसे कभी दार्शनिक लोग निभाया करते थे।’
इस पुस्तक के आरंभ में दवे ने ‘आलोचना-समय’ की बात उठाते हुए कुछ रोचक सामान्य स्थापनाएँ की हैं, कुछ प्रश्न भी खड़े किये हैं जिनका खुलासा फिर आगे के लेखों में होता है। ‘आलोचना और सृजनशील समाज’ इस सिलसिले में एक विचारोत्तेजक और मननीय लेख है जिसमें अफ्रीकी कविता की लोक-ग्रह्यता का बखान करते हुए यह संकेत उभरता है कि ‘आलोचना की उस जमीन को पकड़ना होगा जिस पर हर परिवर्तन हो सकता है, लेकिन जो खुद नहीं बदलती।’ साथ ही, इसी लेख में आगे वे यह जता देना भी नहीं भूलते कि, ‘किस तरह अति –सामाजिकता का प्रमाद सृजन को विश्रृंखलित कर सकता है।’ दोनों ही बातें समकालीन साहित्याकारों और समीक्षकों के लिए अत्यन्त प्रासंगिक और मननीय हैं। दवे आलोचना के लिए आलोचना के कायल नहीं; न आलोचना-कर्म को किन्हीं शास्त्रीय या विचारधाराई आग्रहों के आधीन कर देने के। लेखकों की सन्दर्भ-बहुलता हमें इसी बुनियादी विवेक के चलते बिदकाती नहीं, बल्कि उकसाती है—उन तमाम प्रचलित प्रत्ययों को ठीक-ठीक समझने तथा उनके अतिरिक्त आतंक की झांड़-फूँक करने के लिए। ताकि हम अवसरानुकूल न केवल उन्हें साधिकार बरत सकें, बल्कि एतद्देशीय सन्दर्भों में उनकी उपयोज्यता या अनुपयोज्यता के बारे में भी खुद ही स्वाधीन विवेक से निर्णय ले सकें। इसी के चलते उनकी यह बात खासतौर पर बोलती है कि ‘आलोचना का सौन्दर्य सृजन की शक्ति की पहचान में है इसलिए वह समयबद्ध और समययुक्त एक साथ हैं क्योंकि उसे तो दोनों तरह से साहित्य में प्रवेश करना होता है।’
कहना अनावश्यक है कि दवे की आलोचक-बुद्धि जहाँ जागतिक परिस्थिति के प्रति सचेत है, वहीं वह उसके एतद्देशीय सन्दर्भों को भी आँख से ओझल नहीं होने देती। यह आकस्मिक नहीं कि जहाँ इस संकलन के पहले ही निबन्ध ने अपनी उड़ान मिलान कुंदेरा के हवाले से भरी है, वहीं अगले ही निबन्ध की अन्तर्वस्तु ‘आलोचक राष्ट्र’ की परिकल्पना को सर्वप्रथम देशवासियों के सम्मुख रखने वाले सर्जक-विचारक अज्ञेय से प्ररेणा ग्रहण करती है। आलोचना-कर्म की प्रेरणाओं और प्रक्रियाओं में जरूरी सन्तुलन बनाये रखने की यह कोशिश इस पुस्तक में आद्योपान्त दिखाई देती है।
-रमेशचन्द्र शाह
पूर्वालोचना
हिन्दी-आलोचना पर केन्द्रित यह पुस्तक उन सबके लिए शायद निर्रथक हो, जो
साहित्य-आलोचना पढ़ने की जहमत उठाना पसन्द न करते हों। हिन्दी साहित्य के
आम तो आम, बल्कि कुछ खास पाठक भी साहित्य को उसकी गहन और जटिल वैचारिकता
में पड़ने से कतराते हैं। और न पढ़ने या गहराई से न पढ़ने-समझने की
मनोवृत्ति के कारण किसी भी कृति के सम्बन्ध में स्तरहीन, असमंजसपूर्ण या
जटिल अस्पष्टताओं से भरी होने का फतवा जारी कर देते हैं। ऐसे भी पाठक हैं,
जो जटिल से जटिल पश्चिमी साहित्य और डॉ. जॉन्सन से लेकर एलियट, फ्रेंक,
कर्मोड, ल्यूकाच, लीविस तक की साहित्यिक आलोचना पढ़ने और समझने का ऐसा
दावा करते हैं, जैसे पश्चिम के ग्रीक-रोमन, फ्रेच-जर्मन और
अंग्रेजी-अमरीकी-लतीनी, अमरीकी साहित्य उनके लिए प्लेट में परोसे गये
स्वादिष्ट व्यंजन की तरह हों। उन्हें थोड़ी भी जटिल हिन्दी, संस्कृत या
उर्दू शब्दों से युक्त हिन्दी या दर्शन और साहित्येतर विषयों के प्रयोग
वाली हिन्दी ऐसी लगती है, जैसे हिन्दी भाषा न होकर, हर हिन्दी या
अहिन्दी-भाषी की आज्ञाकारी सेविका हो, जो अपने शिल्प, विधा और भाषा की
उत्कृष्ट अभिव्यक्ति को त्यागकर उन लोगों की इच्छा के मुताबिक हो जाए, जो
साहित्य की भाषा को अखबार या मीडिया की भाषा के रूप में पढ़ना चाहते हैं।
ऐसी मांग दुनिया का कोई देश नहीं करता, क्योंकि वह मानता है कि भाषा
साहित्य में अविष्कृति होती है, प्रयोगशील होती है और अभिव्यक्ति की
उत्कृष्टता सृजन में हासिल करती है। जिस भाषा और साहित्य के पास ऐसे पाठक
होते हैं, उनके लिए न इलियड-ओडिसी कठिन होते हैं, न गोइठे, शेक्सपीयर और न
मलार्मे, वेलेरी, रिल्के—न प्राचीन न आधुनिक और न उत्तर-आधुनिक।
खेद
है कि हिन्दी के पास अभी उतनी श्रेष्ठता और गम्भीरता से साहित्य पढ़ने
वाला पाठक समाज बना नहीं है। इसलिए हर ऐसी रचना या आलोचना, या विचार उनके
लिए जटिल है, जो उनके अनुभव की व्यवहारिक दुनिया से और उनकी भाषा या उनकी
अपनी भाषा-समझ से न जुड़ा हो।
साहित्यिक-आलोचना साहित्य की कुंजी नहीं है, न टीका है, न टिप्पणी और न किसी अखबारी कॉलम का समाचार या फीचर। वह एक प्रगाढ़-प्रज्ञा से प्रसूत ऐसी भाषा है, जो साहित्य के विविध पक्षों को उनकी श्रेष्ठता में उजागर करती है। वह उस विचार, उस अनुभूति, उस शिल्प और उस विन्यास को उजागर करती है, जो साहित्य की प्रत्येक विधा में निहित होता है। वह एक प्रकार की सम्यक और निष्पक्ष न्याय-दृष्टि की सारगर्भित अभिव्यक्ति है।
सुप्रसिद्ध विचारक, समाजकर्मी और भाषा वैज्ञानिक नॉम चाम्सकी के शिष्य जॉन लायन्स का कहना है कि ‘साहित्य का सम्पूर्ण स्थापत्य यदि एक साहित्यिक-समालोचक की पसन्द बनता है, तो इसका कारण है कि उसे साहित्य की शैली या शिल्प....और कविता में तो भाषा इस प्रकार बँट जाती है कि वह वाक्य के तमाम सीमान्तरों को तोड़कर एक प्रकार से ध्यानमग्न समाधि में चली जाती है’। इस ध्यान-मग्न समाधि की गहनतम भाषा को यदि पाठक मूल पाठ में पहचानने या समझने या उसका आनन्द लेने में कठिनाई महसूस करता है, तो आलोचना उस गम्भीरता का अन्वेषण कर उसके पाठ का विवेचन करती है, व्याख्या करती है। अनेक उत्तर-आधुनिक आलोचक तो इस प्रकार के विवेचन या व्याख्या से भी असहमत हैं क्योंकि वे मानते हैं कि पाठ की व्याख्या हो नहीं सकती।
सृजन चाहे जायसी, तुलसी, सूर, कबीर का हो, या निराला, अज्ञेय से लेकर हिन्दी के किसी युवतम कवि का, कथाकार या उपन्यासकार प्रेमचन्द या जैनेन्द्र का हो, या ऐतिहासिक से लेकर आज के नवीन प्रयोगशील कथाकारों तक का, वह अपनी भाषा, अपने शिल्प, अपने विचार और अपनी अनुभूति की गहनता में कभी सरल नहीं होता। पाठक उसकी जटिलता में ही आनन्द लेता है और उस जटिलता को अपने आनन्द या सौन्दर्य-बोध के अनुरूप बना लेने से सन्तुष्ट होता है। भाषा-विज्ञान पढ़ने वाले, भाषा-विज्ञान की ही भाषा से कितने उलझते हैं, विज्ञान पढ़ने वाले विज्ञान की भाषा से टकराते रहते हैं, दर्शन पढ़नेवाले तो दर्शन की भाषा में डूब-डूब जाते हैं, फिर ऐसा क्या है कि साहित्य की भाषा से साहित्य का पाठक उलझना, टकराना या उसमें डूबना नहीं चाहता ?
जब नामवर सिंह यह कहते हैं कि ‘आलोचना’ अपनी कोख से ही, आलोचनात्मक रही है’ तो यह एक सरल और स्पष्ट वाक्य तो नहीं है। जब तक इस सूत्र-वाक्य के अन्तर्निहित आशयों का उद्घाटन करने की जिज्ञासा एक साहित्यिक पाठक में नहीं होती, वह इस वाक्य को जटिल, अस्पष्ट और भ्रमपूर्ण कहकर निरस्त कर सकता है। यदि स्व. रामस्वरूप चतुर्वेदी ‘कामायनी का पुनर्मूल्यांकन’ अपनी आलोचना के जरिये करते हैं, तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि कामायनी की जटिलता को वे सरल कर रहे हैं बल्कि वे कामायनी की गहनता का अन्वेषण कर रहे हैं। कापरा ने अपनी पुस्तक ‘टर्निग पाइण्ट’ में सही कहा था कि हम एक ऐसी सदी में प्रवेश कर रहे हैं जहाँ ज्ञानबोध का संकट एक प्रकार से यूटोपिया और डायसपोरिया के बीच टकराहट के रूप में नजर आएगा।’ हिन्दी के साथ भी शायद यही संकट है क्योंकि हिन्दी पाठक एक प्रकार से ऐसी साहित्यिक सरलता के यूटोपिया में जी रहा है कि वह विचार और दर्शन, ज्ञान और साहित्य की गहन चुनौतियों से टकराना नहीं चाहता। यदि सरलता के नाम पर हम चलताऊ बाजारू साहित्य की माँग करते रहे हैं, तो जैसा नीत्शे से किसी ने पूछा था कि ‘ईश्वर कहाँ चला गया है ?’ तो उसने जवाब दिया था कि उसकी हमने हत्या कर दी है। उसी तरह जब हम यह पूछेंगे कि ‘वेद, पुराण, रामायण, महाभारत के देश का साहित्य कहाँ चला गया है ?’ तो कहीं हमें य न कहना पड़े कि उसकी हमने हत्या कर दी है। हत्या हुई हो या नहीं, मगर अब वी.एस.नायपाल जैसे नोबेल सर्जक भी साहित्य की मौत घोषित कर रहे हैं।
रिल्के साहित्य से समय गढ़ने की चर्चा करता था। विचार आसान नहीं था। वह तो यह तक कहता था कि ‘यदि कोई और अपने लिए बड़ा मनुष्य नहीं गढ़ता, तो मनुष्य गढ़ लेता है अपने लिए एक बड़ा समय, जो साहित्य में प्रकट होता है।’ अज्ञेय भी मानते थे और कहते थे : ‘काव्य के गुण ही अन्ततः भाषा के गुण होते हैं’।
ये सब कथन वैचारिक जटिलता के ऐसे स्थान हैं, जो पारदर्शी या सीधे-सीधे समझ में आने योग्य नहीं हैं। उत्तर-आधुनिक चिन्तक तो साहित्य के पारदर्शीपन के भी विरुद्ध हैं। एक सर्जक जिस प्रकार अपनी बात कुछ हटकर कहती है या कहता है, उसी तरह एक विचारक और आलोचक भी अपना रचना-विमर्श, अपना विवेचन-विश्लेषण, अपनी आलोचना-आशंसा सब कुछ हटकर ही करता है। यही कारण है कि जिस प्रकार से हजारी प्रसाद जी ललित निबन्ध लिखते हैं, उस प्रकार कुबेरनाथ राय और विद्यानिवास मिश्र नहीं लिखते, और जिस प्रकार की आलोचना नन्ददुलारे वाजपेयी करते हैं, वैसी न रामविलास शर्मा करते हैं न नामवरसिंह। अगर अशोक वाजपेयी आलोचना में नयी भाषा लेकर आये तो रमेशचन्द्र शाह, प्रभाकर श्रोत्रिय, रामस्वरूप चतुर्वेदी और मलयज ने वही आलोचना-भाषा नहीं अपनायी। इसलिए भाषा में साहित्य हो या साहित्य में भाषा, आलोचना की भाषा हो या भाषा की आलोचना, वह मूल रूप से चुनौती, जिज्ञासा और मुठभे़ड की भाषा होती है। वह अन्वेषण, विश्लेषण और विवेचन की भाषा होती है। वह फैसले देने की भाषा के बजाय काव्य न्याय की भाषा होती है।
इस पुस्तक के ये सभी निबन्ध हिन्दी आलोचना के अनेक आयामों से जुड़े हैं। जटिल, अस्पष्ट, भाषा-भ्रष्ट और उबाऊ भी हो सकते हैं। निष्पक्षता और तटस्थता का अभाव हो सकता है। मूल रूप से ये न व्यक्ति-केन्द्रित हैं, न किसी रचना-विशेष पर केन्द्रित। ये साहित्यिक आलोचना में विचार और वह भी सर्जनात्मक- विचार के प्रति उन्मुख हैं। इनकी शैली, अभिव्यक्ति, व्यंजकता, सम्प्रेषणीयता सभी से असहमति हो सकती है। ये सिद्धान्त या तत्त्व-निरूपण की नाजायज कोशिश भी नहीं है। चूँकि हिन्दी के पास एक विराट् साहित्यिक और सर्जनात्मक प्रज्ञा है, और हिन्दी के पास बहुत थोड़े ही सही, मगर गम्भीर और विचारवान पाठकों का एक तेजस्वी समूह है, इसलिए उम्मीद है कि ये आलोचनात्मक निबन्ध कुछ विमर्श तो पैदा करने लायक तो बन सकेंगे। ये न किसी आग्रह, पूर्वग्रह या दुराग्रह का परिणाम हैं, न किसी आत्मीयता का अभिवादन ! सोच विचार या प्रतिभा का ठेका किसी आचार्यत्व के आत्मनिर्मित आश्रम के पास नहीं होता। यदि कीट्स-शैली जैसे कवि, तोरु दत्त जैसी कवयित्री, मलयज और राजकमल चौधरी, रमेश बक्षी जैसे सर्जक और आलोचक कम उम्र में बिना किसी आचार्यत्व की आश्रमी दीक्षा के ही दुनिया छोड़ गये, तो यह नहीं कहा जा सकता कि महिमा-मण्डन के अभाव में हिन्दी या अंग्रेजी पाठकों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। शंकराचार्य कितनी कम उम्र में कितना उत्कृष्ट साहित्य रचकर चले गये। इसलिए यह भी न माना जाए कि उम्र और अनुभव किसी कृति पर प्रमाणीकरण चस्पा करने की राजमुद्राएँ हैं।
यह पुस्तक मेरी अपनी साहित्यिक अभिरुचि को आलोचनात्मक सोच में बदलने की एक कमजोर-सी कोशिश है। इससे पूर्व मैं ‘समकालीन अफ्रीकी साहित्य’ भी आलोचना पुस्तक के रूप में लिख चुका था, जो कृति-आधारित आलोचना थी और जिस पर मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी ने नन्ददुलारे वाजपेयी आलोचना पुरस्कार दिया था। दूसरी आलोचना पुस्तक ‘समकालीन रचना और विचार’ थी जिसे हिन्दी पाठकों ने स्वीकार किया था। दोनों पुस्तकों के लगभग दो दशक बाद पुस्तक सम्पूर्ण रूप से आलोचना पर केन्द्रित है। इस बीच हिन्दी साहित्य के महासेतु के नीचे से आलोचना की अपार जलराशि बह चुकी है। मेरे अध्ययन अनुभव और विचार का दायरा कुछ व्यापक हुआ है, समझ बढ़ी है मगर यह नहीं कह सकता कि ये निबन्ध किसी प्रतिभावान, ज्ञानवान और गम्भीर चिन्तक-विचारक की मनीषा से उत्पन्न हुए हैं। जो सोचा, समझा, बस वही लिख दिया। इस लिखे हुए पर लिखने का जो आत्मीय भाव कवि, कथाकार, निबन्धकार व चिन्तक रमेशचन्द्र शाह ने किया और ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ ने जिस प्रकार का अनुग्रह मेरे प्रति व्यक्त कर इसका प्रकाशन किया, उसके लिए मेरी विनम्रता कृतज्ञता व्यक्त करने के अतिरिक्त और कुछ भी क्या कर सकती है ? यदि इसे स्वीकारा गया, तो यह मरे शब्द का श्रम का सही मेहनताना होगा और निरस्त किया गया, तो मेरे लिए अपने लेखकीय भविष्य के प्रति सोचने का एक श्रेष्ठ अवसर।
साहित्यिक-आलोचना साहित्य की कुंजी नहीं है, न टीका है, न टिप्पणी और न किसी अखबारी कॉलम का समाचार या फीचर। वह एक प्रगाढ़-प्रज्ञा से प्रसूत ऐसी भाषा है, जो साहित्य के विविध पक्षों को उनकी श्रेष्ठता में उजागर करती है। वह उस विचार, उस अनुभूति, उस शिल्प और उस विन्यास को उजागर करती है, जो साहित्य की प्रत्येक विधा में निहित होता है। वह एक प्रकार की सम्यक और निष्पक्ष न्याय-दृष्टि की सारगर्भित अभिव्यक्ति है।
सुप्रसिद्ध विचारक, समाजकर्मी और भाषा वैज्ञानिक नॉम चाम्सकी के शिष्य जॉन लायन्स का कहना है कि ‘साहित्य का सम्पूर्ण स्थापत्य यदि एक साहित्यिक-समालोचक की पसन्द बनता है, तो इसका कारण है कि उसे साहित्य की शैली या शिल्प....और कविता में तो भाषा इस प्रकार बँट जाती है कि वह वाक्य के तमाम सीमान्तरों को तोड़कर एक प्रकार से ध्यानमग्न समाधि में चली जाती है’। इस ध्यान-मग्न समाधि की गहनतम भाषा को यदि पाठक मूल पाठ में पहचानने या समझने या उसका आनन्द लेने में कठिनाई महसूस करता है, तो आलोचना उस गम्भीरता का अन्वेषण कर उसके पाठ का विवेचन करती है, व्याख्या करती है। अनेक उत्तर-आधुनिक आलोचक तो इस प्रकार के विवेचन या व्याख्या से भी असहमत हैं क्योंकि वे मानते हैं कि पाठ की व्याख्या हो नहीं सकती।
सृजन चाहे जायसी, तुलसी, सूर, कबीर का हो, या निराला, अज्ञेय से लेकर हिन्दी के किसी युवतम कवि का, कथाकार या उपन्यासकार प्रेमचन्द या जैनेन्द्र का हो, या ऐतिहासिक से लेकर आज के नवीन प्रयोगशील कथाकारों तक का, वह अपनी भाषा, अपने शिल्प, अपने विचार और अपनी अनुभूति की गहनता में कभी सरल नहीं होता। पाठक उसकी जटिलता में ही आनन्द लेता है और उस जटिलता को अपने आनन्द या सौन्दर्य-बोध के अनुरूप बना लेने से सन्तुष्ट होता है। भाषा-विज्ञान पढ़ने वाले, भाषा-विज्ञान की ही भाषा से कितने उलझते हैं, विज्ञान पढ़ने वाले विज्ञान की भाषा से टकराते रहते हैं, दर्शन पढ़नेवाले तो दर्शन की भाषा में डूब-डूब जाते हैं, फिर ऐसा क्या है कि साहित्य की भाषा से साहित्य का पाठक उलझना, टकराना या उसमें डूबना नहीं चाहता ?
जब नामवर सिंह यह कहते हैं कि ‘आलोचना’ अपनी कोख से ही, आलोचनात्मक रही है’ तो यह एक सरल और स्पष्ट वाक्य तो नहीं है। जब तक इस सूत्र-वाक्य के अन्तर्निहित आशयों का उद्घाटन करने की जिज्ञासा एक साहित्यिक पाठक में नहीं होती, वह इस वाक्य को जटिल, अस्पष्ट और भ्रमपूर्ण कहकर निरस्त कर सकता है। यदि स्व. रामस्वरूप चतुर्वेदी ‘कामायनी का पुनर्मूल्यांकन’ अपनी आलोचना के जरिये करते हैं, तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि कामायनी की जटिलता को वे सरल कर रहे हैं बल्कि वे कामायनी की गहनता का अन्वेषण कर रहे हैं। कापरा ने अपनी पुस्तक ‘टर्निग पाइण्ट’ में सही कहा था कि हम एक ऐसी सदी में प्रवेश कर रहे हैं जहाँ ज्ञानबोध का संकट एक प्रकार से यूटोपिया और डायसपोरिया के बीच टकराहट के रूप में नजर आएगा।’ हिन्दी के साथ भी शायद यही संकट है क्योंकि हिन्दी पाठक एक प्रकार से ऐसी साहित्यिक सरलता के यूटोपिया में जी रहा है कि वह विचार और दर्शन, ज्ञान और साहित्य की गहन चुनौतियों से टकराना नहीं चाहता। यदि सरलता के नाम पर हम चलताऊ बाजारू साहित्य की माँग करते रहे हैं, तो जैसा नीत्शे से किसी ने पूछा था कि ‘ईश्वर कहाँ चला गया है ?’ तो उसने जवाब दिया था कि उसकी हमने हत्या कर दी है। उसी तरह जब हम यह पूछेंगे कि ‘वेद, पुराण, रामायण, महाभारत के देश का साहित्य कहाँ चला गया है ?’ तो कहीं हमें य न कहना पड़े कि उसकी हमने हत्या कर दी है। हत्या हुई हो या नहीं, मगर अब वी.एस.नायपाल जैसे नोबेल सर्जक भी साहित्य की मौत घोषित कर रहे हैं।
रिल्के साहित्य से समय गढ़ने की चर्चा करता था। विचार आसान नहीं था। वह तो यह तक कहता था कि ‘यदि कोई और अपने लिए बड़ा मनुष्य नहीं गढ़ता, तो मनुष्य गढ़ लेता है अपने लिए एक बड़ा समय, जो साहित्य में प्रकट होता है।’ अज्ञेय भी मानते थे और कहते थे : ‘काव्य के गुण ही अन्ततः भाषा के गुण होते हैं’।
ये सब कथन वैचारिक जटिलता के ऐसे स्थान हैं, जो पारदर्शी या सीधे-सीधे समझ में आने योग्य नहीं हैं। उत्तर-आधुनिक चिन्तक तो साहित्य के पारदर्शीपन के भी विरुद्ध हैं। एक सर्जक जिस प्रकार अपनी बात कुछ हटकर कहती है या कहता है, उसी तरह एक विचारक और आलोचक भी अपना रचना-विमर्श, अपना विवेचन-विश्लेषण, अपनी आलोचना-आशंसा सब कुछ हटकर ही करता है। यही कारण है कि जिस प्रकार से हजारी प्रसाद जी ललित निबन्ध लिखते हैं, उस प्रकार कुबेरनाथ राय और विद्यानिवास मिश्र नहीं लिखते, और जिस प्रकार की आलोचना नन्ददुलारे वाजपेयी करते हैं, वैसी न रामविलास शर्मा करते हैं न नामवरसिंह। अगर अशोक वाजपेयी आलोचना में नयी भाषा लेकर आये तो रमेशचन्द्र शाह, प्रभाकर श्रोत्रिय, रामस्वरूप चतुर्वेदी और मलयज ने वही आलोचना-भाषा नहीं अपनायी। इसलिए भाषा में साहित्य हो या साहित्य में भाषा, आलोचना की भाषा हो या भाषा की आलोचना, वह मूल रूप से चुनौती, जिज्ञासा और मुठभे़ड की भाषा होती है। वह अन्वेषण, विश्लेषण और विवेचन की भाषा होती है। वह फैसले देने की भाषा के बजाय काव्य न्याय की भाषा होती है।
इस पुस्तक के ये सभी निबन्ध हिन्दी आलोचना के अनेक आयामों से जुड़े हैं। जटिल, अस्पष्ट, भाषा-भ्रष्ट और उबाऊ भी हो सकते हैं। निष्पक्षता और तटस्थता का अभाव हो सकता है। मूल रूप से ये न व्यक्ति-केन्द्रित हैं, न किसी रचना-विशेष पर केन्द्रित। ये साहित्यिक आलोचना में विचार और वह भी सर्जनात्मक- विचार के प्रति उन्मुख हैं। इनकी शैली, अभिव्यक्ति, व्यंजकता, सम्प्रेषणीयता सभी से असहमति हो सकती है। ये सिद्धान्त या तत्त्व-निरूपण की नाजायज कोशिश भी नहीं है। चूँकि हिन्दी के पास एक विराट् साहित्यिक और सर्जनात्मक प्रज्ञा है, और हिन्दी के पास बहुत थोड़े ही सही, मगर गम्भीर और विचारवान पाठकों का एक तेजस्वी समूह है, इसलिए उम्मीद है कि ये आलोचनात्मक निबन्ध कुछ विमर्श तो पैदा करने लायक तो बन सकेंगे। ये न किसी आग्रह, पूर्वग्रह या दुराग्रह का परिणाम हैं, न किसी आत्मीयता का अभिवादन ! सोच विचार या प्रतिभा का ठेका किसी आचार्यत्व के आत्मनिर्मित आश्रम के पास नहीं होता। यदि कीट्स-शैली जैसे कवि, तोरु दत्त जैसी कवयित्री, मलयज और राजकमल चौधरी, रमेश बक्षी जैसे सर्जक और आलोचक कम उम्र में बिना किसी आचार्यत्व की आश्रमी दीक्षा के ही दुनिया छोड़ गये, तो यह नहीं कहा जा सकता कि महिमा-मण्डन के अभाव में हिन्दी या अंग्रेजी पाठकों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। शंकराचार्य कितनी कम उम्र में कितना उत्कृष्ट साहित्य रचकर चले गये। इसलिए यह भी न माना जाए कि उम्र और अनुभव किसी कृति पर प्रमाणीकरण चस्पा करने की राजमुद्राएँ हैं।
यह पुस्तक मेरी अपनी साहित्यिक अभिरुचि को आलोचनात्मक सोच में बदलने की एक कमजोर-सी कोशिश है। इससे पूर्व मैं ‘समकालीन अफ्रीकी साहित्य’ भी आलोचना पुस्तक के रूप में लिख चुका था, जो कृति-आधारित आलोचना थी और जिस पर मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी ने नन्ददुलारे वाजपेयी आलोचना पुरस्कार दिया था। दूसरी आलोचना पुस्तक ‘समकालीन रचना और विचार’ थी जिसे हिन्दी पाठकों ने स्वीकार किया था। दोनों पुस्तकों के लगभग दो दशक बाद पुस्तक सम्पूर्ण रूप से आलोचना पर केन्द्रित है। इस बीच हिन्दी साहित्य के महासेतु के नीचे से आलोचना की अपार जलराशि बह चुकी है। मेरे अध्ययन अनुभव और विचार का दायरा कुछ व्यापक हुआ है, समझ बढ़ी है मगर यह नहीं कह सकता कि ये निबन्ध किसी प्रतिभावान, ज्ञानवान और गम्भीर चिन्तक-विचारक की मनीषा से उत्पन्न हुए हैं। जो सोचा, समझा, बस वही लिख दिया। इस लिखे हुए पर लिखने का जो आत्मीय भाव कवि, कथाकार, निबन्धकार व चिन्तक रमेशचन्द्र शाह ने किया और ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ ने जिस प्रकार का अनुग्रह मेरे प्रति व्यक्त कर इसका प्रकाशन किया, उसके लिए मेरी विनम्रता कृतज्ञता व्यक्त करने के अतिरिक्त और कुछ भी क्या कर सकती है ? यदि इसे स्वीकारा गया, तो यह मरे शब्द का श्रम का सही मेहनताना होगा और निरस्त किया गया, तो मेरे लिए अपने लेखकीय भविष्य के प्रति सोचने का एक श्रेष्ठ अवसर।
-रमेश दवे
आलोचना-समय और साहित्य
मिलान कुन्देरा के उपन्यास ‘लाइ> इज़
एल्सवेअर’ का यह
शीर्षक
प्रसिद्ध कवि रिम्बो का वाक्य है, जिसे सर्रियालिस्ट घोषणा-पत्र में
आन्द्रे ब्रेंताँ ने उद्धृत किया था। कुन्देरा ने मूल रूप से इस उपन्यास
का शीर्षक ‘द लिरिक एज’ रखा था। अन्तिम क्षण में वह
नाम बदलते
हुए कुन्देरा ने कहा था कि ‘लिरिक ही यौवन है’...मेरा
उपन्यास
यौवन का उद्गार है और इसमें यौवन का विश्लेषण’ प्रगीतात्मक
दृष्टिकोण’ से किया गया है। ...प्रगीत-कविता
साहित्यिक विधा
के रूप में सदियों से जारी है, क्योंकि मनुष्य प्रगीत-दृष्टिकोण के लिए
सक्षम है। इसमें कवि का ही व्यक्तित्वीकरण होता है। यदि दान्ते से शुरू
करें तो वह एक ऐसी महान विभूति है जो पूरे यूरोप के इतिहास पर छाया हुआ
है। कवि यानी सर्जक राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक होता है, (जैसे कामू,
गोइठे, मिकिनिज और पुश्किन), कवि क्रान्ति का प्रवक्ता होता है
(जैसे—बिरेंगर, पेटोफी, मायकोवस्की और लोर्का), वह इतिहास की
आवाज
होता है (जैसे —ह्यूगो और ब्रेताँ), वह किसी धार्मिक पन्थ की एक
पौराणिक गाथा की तरह होता है (जैसे—पोट्रार्क, बायरन, रिम्बो और
रिल्के) मगर इन सबसे ऊपर वह एक ऐसे अलंघ्य मूल्य का प्रतिनिधि होता है,
जिसे कविता कहते हैं। अँग्रेजी में कविता यानी पोएट्री शब्द को केपिटल
लेटर से लिखने को मैं तैयार हूँ। (पोस्ट स्क्रिप्च-लाइफ इज़ एल्सवेअर)।
मिलान कुन्देरा ने एज, हिस्ट्री, मायथालाजी जैसे शब्दों से जो समय रचा, उससे कवि-समय, कविता समय का बोध नहीं होता, बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि एक आलोचना समय बन रहा है—जो युग, इतिहास, पुराण, क्रान्ति राष्ट्रीय अस्मिता और अलंघ्य मूल्य सभी को कविता में समाहित कर यह बताता है कि यदि श्रेष्ठतम कुछ है तो वह सृजन या कविता है। मिलान कुन्देरा खुद एक सर्जक है। ‘लाइफ इज़ एल्सवेअर’ का अर्थ न समय है, न जगह, बल्कि है एक यौवन, जिसे गीत की तरह वह देखता है। यह यौवन, यह गीत न समय है, न अवकाश बल्कि एक सर्जक ने जिस प्रकार यौवन, गीत और समय के समस्त प्रतीकों को अमूर्त में विलीन कर दिया है और जो एक ब्रह्माण्डीय-शून्य वहीं अन्तर्निहित आलोचना ने आकार लिया है। इसलिए आलोचना का समय भी एक सर्जक अपनी रचना के साथ बनाता चलता है। अब इस समय को कैसे देखा जाए और क्या सर्जन-समय से उसे जोड़ा या पृथक किया जाए, इसके लिए समय की समूची अवधारणा को ही खंगालना होगा।
आलोचना-समय क्या कविता-समय, कथा-समय या समूचे, सृजन-समय से कोई पृथक रूप है ? साहित्य और समय का रिश्ता क्या है ? क्या समय सृजन में हस्तक्षेप करता है या उसमें उपस्थित रहता है ? क्या समय का रचना में होना, रचना को अधिक सार्थक और प्रासंगिक बनाता है ? समय को लेकर ऐसे अनेक प्रश्न खड़े किये जा सकते हैं।
सोचना यह होगा कि समय एक सर्जक के लिए है क्या ? सर्जक जब भी कुछ रचता है, क्या वह समय-सापेक्ष होता है ? समय एक प्रकार से हमारे समूचे जीवन का गणित-शास्त्र-सा बन गया है। यदि हमारा समूचा जीवन-क्रम समय-क्रम में निहित हो, या उससे संचालित है, तो साहित्य समयगत या समय में क्यों नहीं हो सकता ? समय की एक अवधारणा काल-सम्बद्ध भी है जिसे पीरियड कहा जाता है। ऐसे समय रचना में ऐतिहासिक-समय बनकर घटित होता है यदि रचना किसी समय विशेष का प्रयोग करती है, फिर चाहे वह अतीत का समय हो, या वर्तमान का, तो वह कालान्तर में एक ऐतिहासिक-समय की रचना मान ली जाती है और जो रचना अपने वर्तमान में बनती है, वह सामयिक या समकालीन कहलाने लगती है।
उत्तर-आधुनिकतावादी समय को भी एक प्रकार की मृत-संज्ञा मानते हैं। वे नीत्से के प्रेत को पुनः जाग्रत करते हैं। नीत्शे ने घड़ी के भौतिक काँटों से संचालित समय को नकारा था। उसने केवल प्राकृतिक समय माना था, जो एक प्रकार से मवेशी-समय या पशु-समय था। अपने जीवन-व्यवहार में इसी प्राकृतिक-समय के साथ खाता पीता, सोता-जागती, संवेगगत और प्राकृतिक क्रियाएँ करता हुआ जीता है और मर जाता है। उसके जन्म मरण का समयबद्ध वैसा ब्यौरा नहीं रखा जाता है, जिस प्रकार मनुष्य का। मनुष्य ने अपने भौतिक-समय के लिए पंचांग या कैलेण्डर बना लिया, घड़ी बना ली और स्मृति को कायम रखने का तरीका इतिहास के रूप में खोज लिया। इतिहास जब सृजन में लाया गया, तो उसे पीरियड-साहित्य कहा जाने लगा। यदि प्रसाद के ऐतिहासिक नाटकों, वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों, और इतिहास के प्रसंगों पर लिखी कहानियों को अब कोई नाम दिया जाने लगा है, तो वह है पीरिएड-साहित्य अर्थात् पीरियड-कविता, पीरियड-कथा-उपन्यास, पीरियड-नाटक या निबन्ध। यह काल-संज्ञा साहित्य पर इतनी हावी रही कि कई बार आलोचनाएँ रचना के कृतित्व या सर्जनात्मक पक्ष के बजाय उसके इतिहास या उसकी ऐतिहासिकता का विश्लेषण करने लगीं। रचना की ऐतिहासिक-प्रासंगिता और विश्वसनीयता की जाँच उसके सौन्दर्य और रस से भी अधिक महत्त्वूर्ण हो गयी। रचना के इतिहास-पात्रों को उस समय-विशेष का नायक, महानायक या खलनायक माना गया, लेकिन उस नायकत्व में काव्यगत, कथागत, सौन्दर्यगत और शिल्पगत विशेषताएँ क्या हो सकती हैं, इसकी उपेक्षा होने लगी। इस प्रकार आलोचना-कर्म एक प्रकार से समयबद्ध कर्म हो गया।
रामायण और महाभारत को पुराण के साथ-साथ इतिहास भी कहा गया है। भारतीय वाङ्मय में हमारे समस्त पुरातन इतिहास-ग्रन्थों ने भौतिक समय का अतिक्रमण किया है। वे पंचांग संचालित समय-क्रम में न लिखी गयीं और न उन्हें उनके किसी काल विशेष के इतिहास की तरह पढ़ा-समझा गया। वे समय-मुक्त रचनाएँ थीं, यहाँ तक कि अवकाश या स्पेस-मुक्त भी, क्योंकि समय और अवकाश के भौतिक रूपक ही उन रचनाओं में दखल नहीं देते। पाठक उन रचानाओं को उनके सौन्दर्य में, रस में, मानसिक मनोवेगों में, और अपनी अनुभूतियों के क्षणों में इस तरह पढ़ता है कि न वह उस रचना के निर्माण का काल याद रखता है, न वे तमाम, जिनके कुछ नाम हैं और न घटनाओं के तिथिक्रम। एक क्लासिक रचना मनुष्य को उसके समय और अवकाश-बोध से मुक्त करती है। एक सर्जक और पाठक सौन्दर्य और रसानुभूति के स्तर पर एकाकार होते हैं। इसलिए वहाँ न समय की दस्तक होती है न अवकाश की आवाज।
मिलान कुन्देरा ने एज, हिस्ट्री, मायथालाजी जैसे शब्दों से जो समय रचा, उससे कवि-समय, कविता समय का बोध नहीं होता, बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि एक आलोचना समय बन रहा है—जो युग, इतिहास, पुराण, क्रान्ति राष्ट्रीय अस्मिता और अलंघ्य मूल्य सभी को कविता में समाहित कर यह बताता है कि यदि श्रेष्ठतम कुछ है तो वह सृजन या कविता है। मिलान कुन्देरा खुद एक सर्जक है। ‘लाइफ इज़ एल्सवेअर’ का अर्थ न समय है, न जगह, बल्कि है एक यौवन, जिसे गीत की तरह वह देखता है। यह यौवन, यह गीत न समय है, न अवकाश बल्कि एक सर्जक ने जिस प्रकार यौवन, गीत और समय के समस्त प्रतीकों को अमूर्त में विलीन कर दिया है और जो एक ब्रह्माण्डीय-शून्य वहीं अन्तर्निहित आलोचना ने आकार लिया है। इसलिए आलोचना का समय भी एक सर्जक अपनी रचना के साथ बनाता चलता है। अब इस समय को कैसे देखा जाए और क्या सर्जन-समय से उसे जोड़ा या पृथक किया जाए, इसके लिए समय की समूची अवधारणा को ही खंगालना होगा।
आलोचना-समय क्या कविता-समय, कथा-समय या समूचे, सृजन-समय से कोई पृथक रूप है ? साहित्य और समय का रिश्ता क्या है ? क्या समय सृजन में हस्तक्षेप करता है या उसमें उपस्थित रहता है ? क्या समय का रचना में होना, रचना को अधिक सार्थक और प्रासंगिक बनाता है ? समय को लेकर ऐसे अनेक प्रश्न खड़े किये जा सकते हैं।
सोचना यह होगा कि समय एक सर्जक के लिए है क्या ? सर्जक जब भी कुछ रचता है, क्या वह समय-सापेक्ष होता है ? समय एक प्रकार से हमारे समूचे जीवन का गणित-शास्त्र-सा बन गया है। यदि हमारा समूचा जीवन-क्रम समय-क्रम में निहित हो, या उससे संचालित है, तो साहित्य समयगत या समय में क्यों नहीं हो सकता ? समय की एक अवधारणा काल-सम्बद्ध भी है जिसे पीरियड कहा जाता है। ऐसे समय रचना में ऐतिहासिक-समय बनकर घटित होता है यदि रचना किसी समय विशेष का प्रयोग करती है, फिर चाहे वह अतीत का समय हो, या वर्तमान का, तो वह कालान्तर में एक ऐतिहासिक-समय की रचना मान ली जाती है और जो रचना अपने वर्तमान में बनती है, वह सामयिक या समकालीन कहलाने लगती है।
उत्तर-आधुनिकतावादी समय को भी एक प्रकार की मृत-संज्ञा मानते हैं। वे नीत्से के प्रेत को पुनः जाग्रत करते हैं। नीत्शे ने घड़ी के भौतिक काँटों से संचालित समय को नकारा था। उसने केवल प्राकृतिक समय माना था, जो एक प्रकार से मवेशी-समय या पशु-समय था। अपने जीवन-व्यवहार में इसी प्राकृतिक-समय के साथ खाता पीता, सोता-जागती, संवेगगत और प्राकृतिक क्रियाएँ करता हुआ जीता है और मर जाता है। उसके जन्म मरण का समयबद्ध वैसा ब्यौरा नहीं रखा जाता है, जिस प्रकार मनुष्य का। मनुष्य ने अपने भौतिक-समय के लिए पंचांग या कैलेण्डर बना लिया, घड़ी बना ली और स्मृति को कायम रखने का तरीका इतिहास के रूप में खोज लिया। इतिहास जब सृजन में लाया गया, तो उसे पीरियड-साहित्य कहा जाने लगा। यदि प्रसाद के ऐतिहासिक नाटकों, वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों, और इतिहास के प्रसंगों पर लिखी कहानियों को अब कोई नाम दिया जाने लगा है, तो वह है पीरिएड-साहित्य अर्थात् पीरियड-कविता, पीरियड-कथा-उपन्यास, पीरियड-नाटक या निबन्ध। यह काल-संज्ञा साहित्य पर इतनी हावी रही कि कई बार आलोचनाएँ रचना के कृतित्व या सर्जनात्मक पक्ष के बजाय उसके इतिहास या उसकी ऐतिहासिकता का विश्लेषण करने लगीं। रचना की ऐतिहासिक-प्रासंगिता और विश्वसनीयता की जाँच उसके सौन्दर्य और रस से भी अधिक महत्त्वूर्ण हो गयी। रचना के इतिहास-पात्रों को उस समय-विशेष का नायक, महानायक या खलनायक माना गया, लेकिन उस नायकत्व में काव्यगत, कथागत, सौन्दर्यगत और शिल्पगत विशेषताएँ क्या हो सकती हैं, इसकी उपेक्षा होने लगी। इस प्रकार आलोचना-कर्म एक प्रकार से समयबद्ध कर्म हो गया।
रामायण और महाभारत को पुराण के साथ-साथ इतिहास भी कहा गया है। भारतीय वाङ्मय में हमारे समस्त पुरातन इतिहास-ग्रन्थों ने भौतिक समय का अतिक्रमण किया है। वे पंचांग संचालित समय-क्रम में न लिखी गयीं और न उन्हें उनके किसी काल विशेष के इतिहास की तरह पढ़ा-समझा गया। वे समय-मुक्त रचनाएँ थीं, यहाँ तक कि अवकाश या स्पेस-मुक्त भी, क्योंकि समय और अवकाश के भौतिक रूपक ही उन रचनाओं में दखल नहीं देते। पाठक उन रचानाओं को उनके सौन्दर्य में, रस में, मानसिक मनोवेगों में, और अपनी अनुभूतियों के क्षणों में इस तरह पढ़ता है कि न वह उस रचना के निर्माण का काल याद रखता है, न वे तमाम, जिनके कुछ नाम हैं और न घटनाओं के तिथिक्रम। एक क्लासिक रचना मनुष्य को उसके समय और अवकाश-बोध से मुक्त करती है। एक सर्जक और पाठक सौन्दर्य और रसानुभूति के स्तर पर एकाकार होते हैं। इसलिए वहाँ न समय की दस्तक होती है न अवकाश की आवाज।
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